Thursday, April 26, 2012

बरखा-ऋतु आई...
















दूर शितिज पर खुशियों का बादल छाया,
फिज़ाओ की रंगत बदली, अंधियारे की छटा-छाया,
दूर नभ में, बूंदों ने ली अंगड़ाई,
परबत पर बदरी छायी, बरखा-ऋतु आई...
देखते ही देखते, कई सुर और ताल छिड़ गए,
बूँदें बरसने लगी मुझ पर, लफ्ज़ मचल गए,
देखते ही देखते यौवन ने ली अंगड़ाई,
परबत पर बदरी छायी, बरखा-ऋतु आई...

हरी छोटी पत्तियों का झूम उठा संसार,
मैं, बालक मन करने लगा पुकार,
मिटटी की खुशबू उठी, बचपन ने ली अंगड़ाई,
दूर शितिज पर खुशियों की बदरी छायी,
फिज़ाओ की रंगत बदली, बरखा-ऋतु आई...

रात गुजरी...
















एक रात गुजरी, यादों का स्याह आसमान गुज़र गया,
आँखों से निकल, तकिये पर सारा जहान बिखर गया,
वो कल सुबह का सपना था,
चाह कर भी न वो अपना था,
यादों का तनहा लम्हा था,
बातों का उलझा लम्हा था,
एक रात गुजरी, यादों का स्याह आसमान गुज़र गया,
आँखों से निकल, तकिये पर सारा जहान बिखर गया...

वो अपना था या सपना था,
चाह कर भी वो न अपना था,
था साथ चलता राहों में,
रहता हर पल चाहों में,
फिर क्यूँ न वो अपना था,
आँखों का बस वो सपना था...

एक बात दबी थी सीने में,
एक आस छुपी थी जीने में,
अब आस का न वो सपना है,
चाह कर भी वो न अपना है,
जो रात गुजरी, यादों का स्याह आसमान गुज़र गया,
आँखों से निकल, तकिये पर सारा जहान बिखर गया...

मंजिल सबकी एक है...






















मंजिल सबकी एक है, फिर राहें क्यूँ है जुदा-जुदा,
राह पूछते है मुझसे, हो कर सब क्यूँ खफ़ा-खफ़ा,
मंजिलों की दास्ताँ सब कहते है, यौवन की माला सब जपते है,
फिर आहें क्यूँ है जुदा-जुदा,
मंजिल सबकी एक है, फिर राहें क्यूँ है जुदा-जुदा...

झांकते, है ताकते एक-दूजे की ओर,
फिर भी मिलते नहीं, चाहे दिल का लगा लो ज़ोर,
राह पूछते है मुझसे, हो कर सब क्यूँ खफ़ा-खफ़ा,
मंजिल सबकी एक है, फिर राहें क्यूँ है जुदा-जुदा...

एक रौशनी की आस में जलते,
गिरते, कभी संभलते,
राह फिर क्यूँ न पाते है,
लड़खड़ा कर तो न-समझ भी संभल जाते है,
मंजिल की ताक़ में, करते क़त्ल-इ-आम यहाँ-वहां,
राह पूछते है मुझसे, हो कर सब क्यूँ खफ़ा-खफ़ा,
मंजिल सबकी एक है, फिर राहें क्यूँ है जुदा-जुदा...

अधूरे से ख़्वाब...

अधूरे से ख़्वाब है, चांदी के चंद सिक्कों से,
बहुत बे-जोड़, नायाब है, आँखों में बंद किस्से से,
आँख खोलते तो बोलते, कहते-सुनते यादों के पुराने किस्से से,
वरना यादों में कैद रहते, बातों के पुराने किस्से से,
कभी सुनहरे हो जाते पके बाल की तरह,
कभी छेड़ते बचपन के तराने की तरह,
कभी खो जाते यादों में गुड्डे-गुडिया की कहानी की तरह,
या यादों में रह जाते बस निशानी की तरह,
अधूरे से बंद ख़्वाब है, चांदी के चंद सिक्कों से,
बहुत बे-जोड़, नायाब है, आँखों में बंद किस्से से...

कुछ-कुछ लिख कर, सब कुछ कह दो...






















कुछ-कुछ लिख दो,
कुछ-कुछ कह दो,
कुछ-कुछ लिख कर,
सब कुछ कह दो,
जो दर्द है कुचले-मसले से,
कुछ मैले और कुचैले से,
उस दर्द को तुम बस बहने दो,
कुछ दिल में न तुम रहने दो,
कुछ-कुछ लिख दो,
कुछ-कुछ कह दो,
कुछ-कुछ लिख कर, सब कुछ कह दो...

जो बात है दिल में दबी हुई,
जो जुबां ने अब तक कही नहीं,
उस बात को अब तुम लिख दो,
कुछ-कुछ लिख कर, सब कुछ कह दो...
दर्द को जो यह साया है,
हम सबने ही पाया है,
हर दर्द है सबका हिस्सा,
एक ज़ख्म-इ-दिल है सबका किस्सा,
दिल की बातों को अब लिख दो,
कुछ-कुछ लिख कर, सब कुछ कह दो...

Thursday, April 19, 2012

मैं, नन्ही, छोटी पालकी में...

















नन्ही, छोटी पालकी में,
खुशियों का खजाना आया,
हँसती, खेलती किलकारियों में,
माँ का दुलारा आया,
आँख खुली, जग देखा,
माँ पहले, फिर सब देखा,
घूमा फिर मैं गोद-गोद, 
कभी नानी-दादी की मैं गोद-गोद,
माँ-सी में तेरा अक्स देख ज़रा,
दिल को सुकून सा आया,
मैं, नन्ही, छोटी पालकी में,
खुशियों का खजाना लाया...

चेहरे बना फिर लोग हँसाते,
कभी मैं हँसता, तो कभी खुद रो जाते,
कभी छूते मेरी नाक, तो कभी माथे को सहलाते,
चेहरे पर मुस्कान ले, मुझको सीने से लगाते,
एक रिश्ता जोड़ लिया सबसे,
एक धागा जोड़ लिया अब से,
बन सबका दुलारा, दुनिया में आया,
मैं, नन्ही, छोटी पालकी में,
खुशियों का खजाना लाया...

Wednesday, April 18, 2012

राह चलती रही या कारवां चलता रहा...
















राह चलती रही या कारवां चलता रहा,
मैं चलता रहा या आसमान चलता रहा,
बड़े पेड़ों की छाँव से, उस ओझिल होते गाँव से,
मैं दूर चलता रहा, न चाह कर भी आगे बढ़ता रहा,
वो गुज़रते पत्तों के ऊपर आसमान चलता रहा,
मैं चलता रहा या यादों का कारवां चलता रहा...

लोग मिलते रहे, कुछ बिछड़ते रहे,
बस लिए यादों का कारवां चलता रहे,
कुछ यादों के निशान पड़ते रहे,
या ख़्वाबों के मकान बनते रहे,
जाने राह चलती रही या आसमान चलता रहा,
मैं चलता रहा या यादों का कारवां चलता रहा...

कुछ याद आये किस्से यार पुराने से,
कुछ खो गए भीड़ में गुज़रे ज़माने से,
लोग मिलते रहे, बिछड़ते रहे,
मैं, लिए यादों का कारवां चलता रहा,
राह चलती रही या आसमान चलता रहा,
मैं चलता रहा या यादों का कारवां चलता रहा...

यादों का काफिला...

















यादों का काफिला चल पड़ा,
बातों का काफिला चल पड़ा,
पहर दर पहर गुज़रते रहे,
यूँ ख़्वाबों का कारवां चल पड़ा...

वो गुज़रा लम्हा रेत सा,
जो बजता था पाजेब सा,
धुंधले पड़ते चेहरों में,
यादें ग़ुम सी होती जाती,
चेहरे ओझिल हो जाते,
बातें फिर भी सताती,
जाने क्यूँ, अधूरी यादों का काफिला चल पड़ा,
अनकही बातों का कारवां चल पड़ा...

कुछ बचपन के चेहरे तैर गए,
और आँख गमगीन हो गयी,
होंठ हिलते रहे मुस्कराहट में,
आँखे नमकीन हो गयी,
जो गुज़रा लम्हा रेत सा,
जो बजता था पाजेब सा,
उन उलझी, सिमटी यादों का काफिला चल पड़ा,
अनचाही बातों का कारवां चल पड़ा...

मैं बदला नहीं हूँ...

















मैं बदला नहीं हूँ, हालात बदल गए है,
कुछ उलझे यूँ जज़्बात बदल गए है,
वक़्त का कारवां है चल पड़ा,
उलझे लम्हातों का है सिलसिला,
क्यूँ चेहरों के बदले साज़ है,
आज बदले क्यूँ हालात है,
लोग कहते है की मैं बदल गया हूँ,
पर मैं कहता हूँ की बदले हालात है,
हर चेहरे पर कुछ उलझे जज़्बात है,
हर आवाज़ के बदले साज़ है...

बे-मतलबी दुनिया से दूर है सब,
क्यूँ खुद से यूँ मजबूर है सब,
जाने क्यूँ बदले सब जज़्बात है,
हर चेहरे पर एक राज़ है,
मैं बदला नहीं हूँ, हालात बदल गए है,
हर किसी के उलझे जज़्बात बदल गए है,
हर किसी में एक चोर घर कर गया,
हर चेहरा आदमखोर बन गया,
हर चेहरे पर बदले क्यूँ यह साज़ है,
जाने क्यूँ उलझे जज़्बात है,
मैं बदला नहीं हूँ, बदले हालात है,
हर दिल में बदले जज़्बात है...

Wednesday, April 11, 2012

माघ बदरा...

















हवा चली, फिज़ा खिली,
आई बरखा झूम के,
माघ बदरा, मेघ बरखा,
लाया सावन झूम के,
पत्तियों पर चर-चर नयी, रौशनी सी जगमगाई,
धुल गए सब पाप सारे, नयी फिज़ा सुगंध लायी,
यूँ हवा चली, फिज़ा खिली,
आई बरखा झूम के,
संग मेरे बाग़ खिले,
आया सावन झूम के...

झड़ गए सब धूल-पत्ति, बूँद जो तन को छुई,
एक नया यौवन जागा, बूँद जो मन को छुई,
कोई बालक छुप गया, ओट मेरी यूँ लिए,
कोई चंचल खेल लिया, संग मेरे हो लिए,
मेरी भुजाओ से यूँ बूँदें बोली,
झूमो तरुवर, नभ ठिठोली,
माघ बदरा मेघ यह, फिर न वापस आयेंगे,
है हरा यौवन जो तेरा, फीके यह पड़ जायेंगे,
वक़्त रहते साथ यह, संग मेरे कर ले ठिठोली,
माघ बीता, गुज़रे बदरा, फिर न आये सावन झूम के,
जो हवा चली, फिज़ा खिली,
आज, आई बरखा झूम के,
संग मेरे मगन होले,
फिर न आये सावन झूम के...

Tuesday, April 10, 2012

फिज़ाओ ने ली अंगड़ाई...















फिज़ाओ ने ली अंगड़ाई, फिर पर्वत पर घटा छायी,
घुमड़ कर आये कुछ काले बादल, अंधियारे की छटा छायी,
कुछ बूँदें गिरी तन पर, कुछ बूँदें गिरी मन पर,
कुछ छलकी बरखा यहाँ-वहां, कुछ चेह्के पंछी यहाँ-वहां,
नभ ने ली फिर अंगड़ाई, पर्वत पर घटा छायी...

एक रात गुजरी काली सी, कुछ अंधियारी, उजयाली सी,
एक बात दब कर रह गयी अन्दर, बोझिल, मटियाली सी,
काजल बह गया तकिये पर, सिरहाने जाते-जाते,
एक बात कह गया तकिये पर, बहते, रोते-गाते,
जो वक़्त के यह जो फेरे है, न तेरे, न यह मेरे है,
हर किसी को सुख-दुःख ये बाटे, हर हिस्से के फेरे है,
जो यह रात गुजरी काली सी, कुछ अंधियारी, उजयाली सी,
वो बात दब कर रह गयी अन्दर, बोझिल, मटियाली सी...

जो आज सुबह ने चादर खोली, छोटी-छोटी बूँदें बोली,
मन भिगो दो, तन भिगो दो, भर दो हँसी और ठिठोली,
भिगो कर सारी धरती, नभ के सीने में बिजली कौंधी,
कुछ छलकी बरखा यहाँ-वहां, कुछ चेह्के पंछी यहाँ-वहां,
बच्चों की भागी टोली, पर्वत पर बिजली कौंधी,
फिर फिज़ाओ ने ली अंगड़ाई, पर्वत पर काली घटा छायी,
घुमड़ कर आये कुछ बादल, अंधियारे की छटा छायी...

गरजे कुछ काले बदरा...
















गरजे कुछ काले बदरा,
बरसे कुछ काले बदरा,
तन-मन मेरा भिगोने को,
गरजे कुछ काले बदरा,
एक दर्द छुपा था दिल के अन्दर,
झम-झम करके बरस गया,
एक आह दबी थी दिल के अन्दर,
तर-तर करके बिखर गया,
बरसे कुछ काले बदरा,
तरसे कुछ काले बदरा,
मन मेरा क्यूँ यूँ बरस गया,
तन मेरा क्यूँ यूँ तरस गया,
एक दर्द छुपा था दिल के अन्दर,
झम-झम करके बरस गया,
वो दर्द पुरानी यादों का,
कुछ कड़वी मीठी बातों का,
क्यूँ झट से यूँ ये बिखर गया,
एक आह दबी थी दिल के अन्दर,
तर-तर करके बिखर गया,
गरजे कुछ काले बदरा,
बरसे कुछ काले बदरा...

Wednesday, April 4, 2012

ये घोसला, ये रैन-बसेरा...

ये घोसला, ये रैन-बसेरा,
ये यौवन, ये तन मेरा,
बस कहने को यह मेरा, बस नज़रों का है चेहरा,
इस वक़्त, बे-वक़्त की बातों का, सदियों से है पहरा,
ये घोसला, ये रैन-बसेरा...

जो मन लागा, मैं उसमे रम गया,
जो तन लागा, मैं उसमे जम गया,
ये लफ़्ज़ों का यौवन, ये बातों का घेरा,
बस कहने को यह मेरा, बस नज़रों का है चेहरा,
ये घोसला, ये रैन-बसेरा...

कभी डाल-डाल, कभी पात-पात,
कभी झूमु यहाँ, कभी करू बात,
बस इतना सा है कहना,
बस कहने को यह मेरा, ये लफ़्ज़ों का है घेरा,
ये घोसला, ये रैन-बसेरा...

रुसवाइयों में न ढलने दो...

तन्हाई को रुसवाइयों में न ढलने दो,
चेहरों को दर्द की परछाइयों में न घिरने दो,
बाटते चलो प्यार, हर किसी को, हर पल,
यूँ बे-वजह खुद को परछाइयों में न ढलने दो...

जो दर्द का काला बादल है, वो छट जाएगा,
कल जो सवेरा होगा, एक नया सूरज लाएगा,
यूँ आज को कल के यौवन में न खोने दो,
चेहरे को दर्द की परछाइयों में न घिरने दो,
यूँ तन्हाई को रुसवाइयों में न ढलने दो...

Tuesday, April 3, 2012

अड़ियल काया...

















मैं अटल खड़ा था राहों में, बना हर राही की छाया,
उन्मुक्त गगन में शीश उठा, छरहरी थी मेरी कोमल काया,
पर वक़्त के पड़ते फेरों से, मैं जड़ हुआ, कठोर हुआ,
और खड़ा रहा यूँ राहों में, बन कर अड़ियल सी काया...


दूर गगन की छाव से, उस ओझिल बस्ती गाँव से,
एक रोज़ कोई यूँ आ गया, राह में मुझको पा गया,
बोला मुझको, तू यहाँ खड़ा देता सबको क्यूँ तरुवर छाया,
मैं घर बना कर रह लूँगा, तन धक लूँगा मेरी काया,
मैं मूक-बधिर सा हो कर बोला, क्या धक लोगे मन की छाया?
वो बोला मैं तन ढकने को, नोच रहा तेरी काया,
काट कर मुझको दो टुकड़ों में, मुस्काई वो ओझिल छाया,
लकड़ी का यूँ घर बना, दे दी मुझको ये नयी काया,
मैं, कल खड़ा था राह अटल सा, बना था हर राही की छाया,
पर आज खड़ा हूँ तंग गगन में, खो गयी मेरी कोमल काया,
उन वक़्त के पड़ते फेरों से, मैं जड़ हुआ, कठोर हुआ,
और खड़ा रहा यहाँ राहों पर, बन कर एक अड़ियल काया...

Monday, April 2, 2012

शाख से टूटा हर पत्ता...













शाख से टूटा हर पत्ता, बस एक कहानी कहता है,
कल गुज़रे बीते लम्हे की, धूमिल सी निशानी कहता है,
वो गिरते सूखे पत्तों में, जर होती क्यूँ मेरी काया,
वो पड़ते पीले पत्तों में, खोती क्यूँ मेरी छाया,
उन बिखरे सूखे पत्तों में, वो बात पुरानी कहता है,
शाख से टूटा हर पत्ता, बस एक कहानी कहता है,
कल बीते गुज़रे लम्हे की, धूमिल सी निशानी कहता है...

कभी कुचला-मुचला क़दमों ने, तो कभी तोड़ा-मोड़ा राहों ने,
जो शान कभी थे तरुवर के, उन्हें कुचला-मुचला राहों ने,
कल जो सावन झूम के आया, बरखा ऋतू भी संग में लाया,
गरजे बदरा, भीगा तरुवर, भीगी कैसी मेरी काया,
गुज़रा लम्हा वो बीता कल, गुज़रा सावन आया पत-झड़,
जो शान कभी थे तरुवर के, उन्हें कुचला-मुचला राहों ने,
जो जान कभी थे तरुवर के, उन्हें तोड़ा-मोड़ा राहों ने,
वक़्त बदलता है जो रहता, राह बदलती जाती है,
समय का पहिया है जो चलता, बात बदलती जाती है,
मैं, शाख से टूटा हूँ पत्ता, बस एक कहानी कहता हूँ,
कल गुज़रे बीते लम्हे की, धूमिल से निशानी कहता हूँ,
गर! पड़े रहे यूँ राहों में, धूमिल होगी अपनी काया,
निकलों खुद के क़दमों से, बहने दो खुद की छाया,
छंद रचो, कह दो मन की, मरने न दो खुद की काया,
कल सावन जो वो झूम के आएगा, हरी होगी फिर से छाया,
शाख से टूटा हर पत्ता, बस एक कहानी कहता है,
कल गुज़रे बीते लम्हे की, धूमिल सी कहानी कहता है...