Tuesday, April 10, 2012

फिज़ाओ ने ली अंगड़ाई...















फिज़ाओ ने ली अंगड़ाई, फिर पर्वत पर घटा छायी,
घुमड़ कर आये कुछ काले बादल, अंधियारे की छटा छायी,
कुछ बूँदें गिरी तन पर, कुछ बूँदें गिरी मन पर,
कुछ छलकी बरखा यहाँ-वहां, कुछ चेह्के पंछी यहाँ-वहां,
नभ ने ली फिर अंगड़ाई, पर्वत पर घटा छायी...

एक रात गुजरी काली सी, कुछ अंधियारी, उजयाली सी,
एक बात दब कर रह गयी अन्दर, बोझिल, मटियाली सी,
काजल बह गया तकिये पर, सिरहाने जाते-जाते,
एक बात कह गया तकिये पर, बहते, रोते-गाते,
जो वक़्त के यह जो फेरे है, न तेरे, न यह मेरे है,
हर किसी को सुख-दुःख ये बाटे, हर हिस्से के फेरे है,
जो यह रात गुजरी काली सी, कुछ अंधियारी, उजयाली सी,
वो बात दब कर रह गयी अन्दर, बोझिल, मटियाली सी...

जो आज सुबह ने चादर खोली, छोटी-छोटी बूँदें बोली,
मन भिगो दो, तन भिगो दो, भर दो हँसी और ठिठोली,
भिगो कर सारी धरती, नभ के सीने में बिजली कौंधी,
कुछ छलकी बरखा यहाँ-वहां, कुछ चेह्के पंछी यहाँ-वहां,
बच्चों की भागी टोली, पर्वत पर बिजली कौंधी,
फिर फिज़ाओ ने ली अंगड़ाई, पर्वत पर काली घटा छायी,
घुमड़ कर आये कुछ बादल, अंधियारे की छटा छायी...

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