मैं अटल खड़ा था राहों में, बना हर राही की छाया,
उन्मुक्त गगन में शीश उठा, छरहरी थी मेरी कोमल काया,
पर वक़्त के पड़ते फेरों से, मैं जड़ हुआ, कठोर हुआ,
और खड़ा रहा यूँ राहों में, बन कर अड़ियल सी काया...
दूर गगन की छाव से, उस ओझिल बस्ती गाँव से,
एक रोज़ कोई यूँ आ गया, राह में मुझको पा गया,
बोला मुझको, तू यहाँ खड़ा देता सबको क्यूँ तरुवर छाया,
मैं घर बना कर रह लूँगा, तन धक लूँगा मेरी काया,
मैं मूक-बधिर सा हो कर बोला, क्या धक लोगे मन की छाया?
वो बोला मैं तन ढकने को, नोच रहा तेरी काया,
काट कर मुझको दो टुकड़ों में, मुस्काई वो ओझिल छाया,
लकड़ी का यूँ घर बना, दे दी मुझको ये नयी काया,
मैं, कल खड़ा था राह अटल सा, बना था हर राही की छाया,
पर आज खड़ा हूँ तंग गगन में, खो गयी मेरी कोमल काया,
उन वक़्त के पड़ते फेरों से, मैं जड़ हुआ, कठोर हुआ,
और खड़ा रहा यहाँ राहों पर, बन कर एक अड़ियल काया...

मंगलवार 18/02/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteआप भी एक नज़र देखें
धन्यवाद .... आभार ....