Thursday, June 12, 2014

अपने करम...

अपने करम की ही वजह थी,
जो तू मुझसे खफ़ा थी,
मैं तो तनहा था कल भी आज भी,
पर तू ही जीने की वजह थी,
पल कैसे गुजारु तुझ बिन,
तुझ बिन ज़िन्दगी बेवजह थी,
अपने करम की ही वजह थी,
जो तू मुझसे खफ़ा थी ।

कैसी ये खुदाई थी,
जो तुझसे हुई जुदाई थी,
मेरी ज़िन्दगी तुझ बिन,
बस यूँ ही बेवजह थी,
मैं तो तन्हा था कल भी आज भी,
पर तू ही जीने की वजह थी,
अपने करम की ही वजह थी,
जो तू मुझसे खफ़ा थी ।।

कितना मुश्किल था...

कितना मुश्किल था उसके लिए जिंदा रहना,
जो वो चलती रेल के आगे कूद गया,
क्या प्यार नहीं मिला,
या अपना कोई रूठ गया,
भीड़ लगी थी लोगों की,
और ज़िन्दगी का तार था टूट गया,
कितना मुश्किल था उसके लिए जिंदा रहना,
जो वो चलती रेल के आगे कूद गया ।

एक कलाम कहता हूँ...

चलो आज एक कलाम कहता हूँ,
कुछ अधूरा सा उसके नाम कहता हूँ,
जो छोड़ गया था तन्हा राहों में,
दर्द की आह न सुनी अपनी चाहों में,
कुछ तन्हा, कुछ बेनाम कहता हूँ,
चलो एक कलाम कहता हूँ ।

आँखों के दरिया में डूबा रहता हूँ,
वो होगी मेरी हर पल ये कहता हूँ,
भीड़ में क्यूँ तन्हा रहता हूँ,
फिर क्यूँ मुझसे "मैं" ही दूर रहता हूँ,
चलो एक कलाम कहता हूँ,
कुछ अधूरा सा उसके नाम कहता हूँ ।।

रेशम सी किरणें...

डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी,
साथ में अपने संग-संग,
रेशम सी किरणें लायी थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।

मैं भूखा-प्यासा बैठा था,
कुंठित मन कुछ ऐसा ऐठा था,
वो भोग-विलास की सब माया,
छोड़-छाड़ के आई थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।।

मैं बैठा था बस कलम लिए,
लफ़्ज़ों के कुछ थे घूट पिए,
शायद मुझसे कुछ कहने को,
वो सुबह लौट-लौट के आई थी,
साथ में अपने संग-संग,
चिड़ियों की ची-ची लायी थी,
कानों ने जैसे शहद घुले,
मन के थे कुछ पंख खुले,
वो भोग-विलास की सब माया,
छोड़-छाड़ के आई थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।।।

माँ...

माँ ने सुबह उठ कर,
एक लम्बी डांट लगा दी थी,
दो अश्क़ बहा कर,
मेरे मन में आस जगा दी थी,
लड़ मैं रहा था साँसों से,
चोटिल वो हो जाती थी,
रो-रो कर मुझको,
तन से यूँ लगाती थी,
बस नहीं चलता जो मुझ पर,
तो गुस्से में झल्लाती थी,
मुझे तड़पता देख कर,
रोते में चिल्लाती थी,
दो अश्क़ बहा कर,
लिखने की आस जगा दी थी,
माँ ने सुबह उठ कर,
एक लम्बी डांट लगा दी थी ।

वो पलट-पलट कर देखे मुझको,
गुस्से में चिल्लाती थी,
सांसें जो उखड़े मेरी,
तो धीरे से सहलाती थी,
भर कर ममता का दामन,
मुझे सीने से लगाती थी,
बस नहीं चलता जो मुझ पर,
तो गुस्से में चिल्लाती थी ।।

मैं रातों में बैठा रहता,
माँ से ये वादा कहता,
ध्यान रखूँगा अपना,
क्यूँ है तुमको जगना,
वो कहती कान पकड़ मेरा,
माँ हूँ, तू लाड़ला अपना,
और कह कर इतना,
गुस्से में रो जाती थी,
भर कर ममता का दामन,
मुझे सीने से लगाती थी,
बस नहीं चलता जो मुझ पर,
तो गुस्से में चिल्लाती थी,
माँ ने सुबह-सुबह उठ कर,
एक लम्बी डांट लगा दी थी ।।।

सांसें...

सांसें पेश्तर थी,
ज़ख्म और गहराने लगे,
बातों में कुछ यूँ,
खून के छीटे आने लगे,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।

ज़िन्दगी की हवस कमज़ोर पड़ने लगी,
सांसें रह-रह कर शोर करने लगी,
कलम, स्याही छोड़ चलने लगी,
आँखें भी अंत के इंतज़ार में थकने लगी,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।।

उम्र का पड़ाव कुछ भी न था,
तुम...तुम थे, मैं, मैं भी न था,
यादों के साये लहराने लगे,
ज़ख्म नासूर नज़र आने लगे,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।।।

कश्मकश-ए-लफ्ज़...भाग 2

न कुछ ख़ास…
न कुछ ख़ास होता है,
न कोई ख़ास कहानी है,
ये दिन भी कुछ ख़ास नहीं,
बस आम सी ज़िन्दगानी है,
उम्मीदों के घरों में,
कई बुझे चिराग है,
कुछ बुझा दिए मैंने,
तो कुछ बुझ्तों की निशानी है,
न कुछ ख़ास होता है,
न कुछ ख़ास कहानी है,
ये दिन भी कुछ ख़ास नहीं,
बस आम सी ज़िन्दगानी है ।।

हालात…
बड़ी नासाज़ी के हालात रहते है,
कुछ उलझे-उलझे से ख्यालात रहते है,
शायद टूट रहा हूँ मैं,
इसलिए उलझे से हालात रहते है,
बड़ी नासाज़ी के हालात रहते है ।

लिखने की अदा…
लिखने की अदा को मेरा दर्द मान लेते है,
कुछ कहना चाहो और कुछ जान लेते है,
लफ़्ज़ों का पुलिंदा भी खूब उछालते है दोस्त मेरे,
मेरे लफ़्ज़ों को ही मेरा दर्द मान लेते है ।

कह कर…
कोई छोटा कह कर दिल से लगा लेता है,
कोई बड़ा कह कर दूर भगा देता है,
कैसा दस्तूर है दुनिआ का अभिनव,
न दिल से मिलता है, न दिल को मिला देता है ।

दौड़ में…
मंज़िलों की दौड़ में कारवां बदलते गए,
कभी मैं बदलता गया, कभी लोग बदलते गए,
सुख-दुःख का आना जाना रहा,
कुछ वक़्त बदलता गया, कुछ शौक़ बदलते गए ।

मकां…
मैं मकान बदलता रहा मंजिलों की ख़ातिर,
और मेरा ही मकां न रहा,
"मैं" मैं तो रहा तन्हा-तन्हा,
पर जो रहा उसका मकां न रहा ।

नज़रों से…
इस बेबंकी से वो नज़रों से इज़हार करते है,
छुप-छुप कर हम पर नज़रों से वार करते है,
घायल कर देते है दिल मेरा,
और, कहते है हम आपसे इश्क़ का इज़हार करते है ।

लम्हा…
बड़ा कमज़र्फ था वो लम्हा,
जब कहा कि हमे अलग होना पड़ेगा,
मैं भी जानता था और वो भी,
कि, जिस्म जुदा होते है रूहें नहीं ।

कश्मकश-ए-लफ्ज़...भाग 1

रात भर… 
रात भर जलती रही ये निगाहें मेरी,
आज जाना इश्क़ की ख़लिश भी क्या चीज़ है,
सारा शहर सोता रहा सिसकियों पर मेरी,
आज जाना इश्क़ की तपिश भी क्या चीज़ है ।
मरता रहा तिल-तिल कर उसके लिए,
जिसको रश्क़ भी न रहा मेरे होने का,
गीला तकिया रहा चीखता रात भर,
आज जाना इश्क़ की ख़लिश भी क्या चीज़ है ।।

आदत...
कैसे रोकूँ तुझको खुद से बिछड़ने से,
एक आदत सी बन गयी है तू मेरी,
कैसे रोकूँ अश्क़ों को यूँ बेवज़ह बहने से,
एक चाहत सी बन गयी है तू मेरी,
नाज़ों से संभाला था काँच से दिल को,
इक, कैसे बिखर जाऊं यूँ ही,
कैसे रोकूँ साँसों से बिछड़ने से,
एक आदत सी बन गयी है तू मेरी ।

ये रात न होती…
काश ये रात न होती,
तकिये पर फिर बरसात न होती,
न यादें घर करती, न चोट बार-बार होती,
काश ये रात न होती,
तकिये पर फिर बरसात न होती ।

माना ख़ता थी मेरी,
साँसों को मिली थी सज़ा तेरी,
फिर क्यूँ गुजरी रात ऐसी,
काश ये रात न होती,
तकिये पर फिर बरसात न होती ।।

एहसास लिए चलता हूँ…
भीड़ में भी एक एहसास लिए चलता हूँ,
शायद कुछ ख़ास लिए चलता हूँ,
तन्हा हो कर भी तन्हा नहीं,
ऐसा कुछ ख़ास लिए चलता हूँ,
भीड़ में भी एक एहसास लिए चलता हूँ ।

क्यूँ तेरे होने की वजह नहीं मिलती,
क्यूँ तुझे खोने की दिल में जगह नहीं मिलती,
न हो कर भी एक एहसास लिए चलता हूँ,
शायद कुछ ख़ास लिए चलता हूँ,
भीड़ में भी एक एहसास लिए चलता हूँ ।।

रात कैसे आएगी…
तुम न आओगे तो रात कैसे आएगी,
रातों में लिपटी सौगात कैसे आएगी,
दिन तो कट ही जाएगा किसी तरह,
तुम न आये तो ये रात कैसे जायेगी ।

मनचली हवाओं ने...

कल, मनचली हवाओं ने शहर नेस्तनाबूत कर दिया,
बारिश ने भी अठखेलियाँ खेली, और शहर सारा तर दिया,
कुछ झोपड़े उड़े, बस्तियों को वीरान सा कर दिया,
कल, मनचली हवाओं ने, शहर नेस्तनाबूत कर दिया ।

बुजुर्ग पेड़ों की टूटी अपनी कहानी थी,
उजड़े घोसले और ज़िन्दगी बेमानी थी,
कुछ देर के मंज़र ने, गलियों को शमशान ऐसा कर दिया,
मानो सदियों से बंज़र हो ज़मीन उसको भी बंज़र कर दिया,
बारिश ने भी अठखेलियाँ खेली, और शहर सारा तर दिया,
कल, मनचली हवाओं ने, शहर नेस्तनाबूत कर दिया ।।

मैं, स्तब्ध था ख़्यालों में,
उलझे-उलझे सवालों में,
कि, मौला ये तूने क्या कर दिया,
और देखा, बूढ़े पेड़ की दरख्तों में एक नन्हा पौधा कर दिया,
जहाँ, गिरा कर बड़े पेड़ों को, शमशान सा कर दिया,
वहीं, पेड़ों की कोपलों में जीवन भी भर दिया,
मैं ये तकता रहा कि जाने ये क्या कर दिया,
मौसम के इस बदले रुख़ ने मेरे लिखने में क्या बल दिया,
बारिश ने भी अठखेलियाँ खेली, और शहर सारा तर दिया,
कल, मनचली हवाओं ने, शहर नेस्तनाबूत कर दिया ।।

आईना...

आईने से भी नफ़रत हो गयी कैसी,
जाने कैसी मोहब्बत हो गयी ऐसी,
उठ-उठ कर रोने लगा रातों को,
वाह री मोहब्बत हो गयी कैसी,
वो छोड़ गया मुझको, कोई गम नहीं,
कैसे मैं छोडू उसको आफ़त हो गयी ऐसी,
जाने मोहब्बत हो गयी ऐसी,
आईने से भी नफ़रत हो गयी कैसी ।

अभी तो जीना सीखा था,
खुशियों को "अपना" कहना सीखा था,
फिर क्यूँ, उसको मुझसे नफ़रत हो गयी कैसी,
जाने कैसे मोहब्बत हो गयी ऐसी,
क्यूँ अपना इतना मान लिया,
हर बातों पर "जान" दिया,
फिर भी उसने ठुकरान दिया,
मुझे मोहब्बत का ज्ञान दिया,
अभिनव, क्यूँ मोहब्बत हो गयी ऐसी,
खुद से ही नफ़रत हो गयी कैसी,
उठ-उठ कर रोने लगा रातों को,
वाह री मोहब्बत हो गयी कैसी ।।

कुछ यूँ ही...भाग 5

हर एक राह में मिलता हूँ तुझसे (खुदा),
"मैं" मुसाफ़िर हूँ या तू है हर जगह?

हालात-ए-हौसला हर मुमकिन है अभिनव,
गर जो ठान लून चलने की ।

हाल-ए-दिल न पूछो किसी से,
निकम्मे हज़ारों है शहर में ।

लफ्ज़ उछल पड़ते है देखते ही उसको,
ये मैं नहीं उसकी अदा बोलती है ।

दर्द की नुमाइश न की कभी अभिनव,
वो तो बस उस-उसने दिया जो मेरा अपना था ।

मैं ही हुआ हर कोफ़्त की वजह,
मेरी दिल्लगी को शक़ की शुबा समझी ।

कौन जीता है यहाँ ज़माने के लिए,
हर एक फ़ना हुआ है किसी की ख़ातिर ।

आईना-ए-दिल्लगी का यूँ टूटा अभिनव,
अब तक जो गोया सच्चा था वो ही झूठा निकला ।

अजब सी कशमकश है ज़िन्दगी,
गम के आंसू तो है पर बहते नहीं ।

दर्द की वफ़ाये भी रूठी मुझसे,
कुछ इस तरह आशिक़ी मिली मुझको ।

रो लिया उस से लिपट कर वो ऐसे,
जैसे मुद्दत बाद मिला हो कोई अपना ।

अजीब की कशमकश है ज़िन्दगी,
दर्द भी देता हूँ और तकलीफ़ भी होती है ।

कितनी लम्बी होती है ये रात,
ये मैं जानता हूँ या मेरा दर्द ।

मलाल ये न था कि मैं हारा,
पर लड़ा जिसको हमनफज़ वो ही बागी निकला ।

एक सलीके से हुआ क़त्ल मेरा,
न आह निकली न हश्र हुआ ।

मोम सा कर दिया उसके इश्क़ ने,
कभी मैं भी पत्थर सा हुआ करता था अभिनव ।

काश! जिस्म की तरह मैं भी जल जाता,
फिर कोई दर्द न होता दिल्लगी का ।

पल-पल ऐसे गुज़रा है तुझ बिन,
जैसे मौत रुक-रुक के आई हो ।

जब-जब दर्द हुआ, अश्क़ छुपा लिए,
लोग कहते है मुझको हँसने की आदत हो गयी ।

कुछ यूँ ही...भाग 4

हर कोई अदा करता है फ़र्ज़-ए-अजनबीपन का यहाँ,
कोई अभिनव नहीं मिलता दिल से इश्क़ करने वाला । 

बड़ी परेशानियों को भी तू हँस कर मना लेती है,
ए माँ मैं तेरा क्या शुक्रिया-अदा करूँ ।

एक दिली मशवरा देता हूँ रख लीजिये,
यूँ मेरे लफ़्ज़ों से इतनी दिल्लगी अच्छी नहीं ।

थक कर गुज़र ही गया दिन भी मेरा,
मानो थम-थम कर गुज़री हो ये ज़िन्दगी ।

इश्क़ का फ़ितूर भी कितना अच्छा था अभिनव,
कि, हँसते भी रहा मैं और रो भी न सका । 

बहुत चोटें खाई है इस नन्हे से दिल पे,
फिर भी टूट कर बिखरता नहीं ।

सफ़र-दर-सफ़र चलता रहा दुआओं का सिलसिला,
बस मैं ही नहीं मिला इस सफ़र में । 

मिल ही जाते है सफ़र में दुआ-सलाम वाले,
पर वो नहीं मिलता जिस से दिल मिला हो ।

ढल जाना चाहता हूँ उस सूरज की तरह,
जो कल न निकले फिर सुबह के लिए ।

रिश्ता पुराना है गम से मेरा,
यूँ नहीं पथराई है आँखें मेरी । 

छुपा बैठा मुझसे नज़रें वो ऐसे,
जैसे बरसों का रो कर आया हो ।

कितना लम्बा है ये सफ़र,
चार कन्धों की ख़ातिर ।

क्यूँ मौत भी नहीं मुनासिब मुझे,
क्या ज़िन्दगी के इतने गुनाह है मुझ पर ।

तुम न भुगतो वो ज़ख्म कभी,
जो मैं जी रहा हूँ लम्हा-लम्हा ।

हालात-ए-इश्क़ पर किसका कहाँ ज़ोर है अभिनव,
हर कोई छलता है यहाँ इक दिल्लगी की ख़ातिर । 

खुश हो जाता हूँ जब भी मिलता हूँ,
तुझसे मिल कर एक अजब सा एहसास होता है । 

है कमबख्त़ न-समझो का शहर,
इक मैं ही यहाँ लफ्जों का भरा ।

बहुत से मंज़र गुजरेंगे सर-ए-राह में,
फिर भी चलते रहना ही ज़िन्दगी है ।

बहुत मुफ़लिसी से गुज़रे है बेज़ारी के दिन भी,
कुछ मेरे गुनाह, कुछ तेरे करम है कि जिन्दा हूँ ।

बड़ी आरज़ू में गुज़री थी वो रात,
फ़कत तेरे लफ़्ज़ों की ख़ातिर ।

वो पूछते है मेरे लिखने का सबब,
और मैं कहता हूँ की ये उसकी (खुदा) खता है । 

बड़ा तन्हा होता है एक-एक लम्हा तुझ बिन,
ये मैं नहीं मेरी तन्हाई कहती है ।

बहुत नुक्सान है दिलों की सौदेबाज़ी में,
कोई आशिक़ नहीं देखा यहाँ खुश होते हुए । 

सूरत से नहीं सीरत से तौलो अभिनव,
मैं बिकता नहीं बाज़ारों में आसानी से । 

मैं कह लेता हूँ तुमसे दिल की बात,
क्यूंकि, दिल...दिल है, चेहरा नहीं । 

कुछ यूँ ही...भाग 3

क्या वजह थी अश्क़ों के बहने की,
दिल ही तो दुखा था थोड़ा सा ।

कैसे समझाऊँ तुझे कि तू क्या है,
सांसें रुक जाती है मेरी, तेरे न होने पर ।

क्यूँ यादों का ज़िक्र छेड़ दिया उसने,
मैं, तन्हा था तो अच्छा था ।

करवटों-करवटों में गुज़र गयी रात,
फिर भी उस सुबह की प्यास न बुझी ।

फिर से दर्द का कारोबार कर लिया मैंने,
पहले, मुफ़लिस था तो अच्छा था ।

कहीं दफ़न न हो जाऊं मैं,
इक तेरी बेरुख़ी के चलते ।

बहुत तकलीफ़ में चल कर गया वो ऐसे,
जैसे तड़पता दिल छोड़ गया हो कोई ।

एक चाह उठी कि छोड़ दूं ये लड़-खड़ाती सांसें,
पर ख़्याल उठा, अभी और दुःख झेलने बाकी है अभिनव ।

ख़ाक है भरोसा जो करता नहीं,
कैसे तोडूं खुद को, मैं भी मरता नहीं ।

इतना सा ही आसरा दे जाते...जाते-जाते,
कि, हकीक़त में न सही ख़्वाब में मिला करेंगे ।

गुनाहगार हूँ बहुत सी भूलों का,
गर हो सके माफ़ कर देना ।

यादों का भी क्या कमबख्त़ कारोबार है,
तन्हा होते ही घेर लेती है अभिनव ।

लम्हे-लम्हे गुज़ारे है तन्हाई की राह में,
कि, किसी रोज़ वो पलट लौट आयेंगे वापस ।

यूँ ही पत्थर-दिल नहीं हुआ अभिनव,
बहुत सी चोटें खायी है दिल पर ।

आँखें थक गयी राह तकते-तकते,
अब तो आ जाओ मेरे सामने ।

रात भर सो न सका इस ख़्याल में,
कि, किस पल आ जायेंगे वो सुबह ख़्वाब में ।

बहुत ठोकरें खा कर चलना सीखा है मैंने,
मेरे गिर कर उठने की दांस्ता उन रास्तों से पूछो ।

क्यूँ प्यार की यही ख़ता है,
कि, सजाए भी मेरी और तकलीफ़ भी ।

टूट कर रोया हूँ रात भर,
वजह, सिर्फ रात जानती है या आँखें ।

सो जाना चाहता हूँ कुछ दिनों के लिए,
एक रोज़ उठूँगा फिर नया दिल ले कर ।

कुछ यूँ ही...भाग 2

ता-उम्र बुरा बनता रहा मैं उसके इश्क़ में,
जब रश्क़ हुआ तो जाना की कितनी भूल हुई ।

क्यूँ निकलना नहीं चाहता पुरानी तकलीफ़ों से,
जाने क्यों ये दर्द भरी ज़िन्दगी मुझको अच्छी लगती है ।

अधूरी सी ख़्वाहिश लिए चल रहा हूँ, श्रद्धा की चाह में,
तुम ज़िन्दगी दो या मौत, मेरे खुदा अब ये तुम पर है ।

आवारगी में था तो अच्छा था ए दोस्त,
बिगड़ गया हूँ जबसे महोब्बत हो गयी ।

कोई क़त्ल कर दे मेरा ए खुदा,
खुद से रुख़सत हो कर ज़िन्दगी अच्छी लगती नहीं ।

तकलीफ़ हुई जब मैं कह गया, कि, हर मोड़ मिले मोहब्बत वाले,
पर कोई मुझसा न मिले, तुम पर पल-पल मरने वाला ।

अब और लड़ने की हिम्मत नहीं है ए खुदा,
हो सके तो इस ज़िन्दगी से रुख़सत दे दे ।

क़त्ल मेरे अरमानों का हुआ यूँ इस कदर,
कि, मैं हँसता भी रहा और रो न सका ।

क़त्ल सा कर गए उसके लफ्ज़,
और मैं, बस यूँ देखता रहा ।

जाते-जाते उसने मुनासिब न समझा ये कहना,
कि, हो सके तो सो जाना इत्मीनान से ।

मरता क्या न करता मोहोब्बत के सिवा,
मुझको ये बेवजह की ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती ।

बस रहने दे मुझको "मुझ" तक,
तुझ में रहता हूँ तो तकलीफ़ होती है अभिनव ।

आख़िर, चुभ गए वो लफ्ज़ भी,
काश! ख़ंजर होता ।

पत्थर सा ही सही, कोई मिलता मुझे,
अब दिलवालों से दिल्लगी होती नहीं मुझसे।

फिर से ला खड़ा किया मुझे उस ही दो-राहे पर,
न ज़िन्दगी मिली मुझे, न मौत नसीब हुई ।

कुछ यूँ ही...भाग 1

कोई तो समझ ले हालत मेरी,
दर्द का मारा हूँ टूटा तनहा सा ।

आज, कर दिया खुद से खुद को जुदा,
अब तू कभी मुझसे उदास न होगी ।

कोई नहीं रहता इस शहर में,
बस, एक आशिक़ की रूह तड़पती है ।

हालात-ए-इश्क़ में इतना गिर गया हूँ मैं,
आईने में देखता हूँ तो कितना "छोटा" नज़र आता हूँ ।

कैसे गुज़रता है लम्हा-लम्हा तुम बिन,
ये मैं जानता हूँ या वक़्त जानता है ।

जाने क्या दर्द था आँखों को,
जो, सिसकती रही रात आहिस्ता-आहिस्ता ।

रह-रहकर गुज़री है मौत मुझे,
वाह री मेरी मोहब्बत, तेरा भी क्या कहना ।

तोड़ दो ये साँसों की डोर भी,
ये ज़िन्दगी अब मुझे अच्छी लगती नहीं ।

बोल भी न फूटे मुंह से,
जाने क्यूँ ऐसी उदासी छायी है ।

दिल के नासूरों से जिस्म के ज़ख्म अच्छे है,
कम से कम देख कर सुकूं-ए-नज़र होता है ।

ख़ाक मोहब्बत कर ली मैंने,
इक सज़ा सी काट रहा हूँ जैसे ।

गैरों से हँस कर बातें करते है वो,
मुझसे अब बातें शायद अच्छी नहीं लगती ।

कह दिए लाखों क़सीदे दिल के,
पर, उन पर फ़र्क न पड़ा ज़माने जैसा ।

उसकी आँखें खोजती रही सुबह का मकां,
और यूँ ही इस तरह रात गुज़र गयी ।

छुपा लूं दुनिया भर की नज़रों से,
कोई और न देखे तुझको, बस मेरे सिवा । 

Monday, June 2, 2014

ढोंगी बाबा...

लोगों की कतार लगी थी,
भीड़ ये अपरम्पार लगी थी,
एक ढोंगी बाबा से मिलने को,
भीड़ में हाहाकार मची थी,
श्रद्धा में उमड़ी काया थी,
जून में जलती छाया थी,
हुजूम की जय-जयकार लगी थी,
लोगों की कतार लगी थी ।

कोई संत नहीं वो ढोंगी था,
भक्षी, कष्तन, वो भोगी था,
बालाओं से घिर कर,
वो भ्रम्चार्य का ढोंगी था,
मोह-माया को तज कर भी,
वो भूखा, मोह का रोगी था,
उसकी, सुबह जो तपती प्यासी थी,
और रात बड़ी विलासी थी,
आभूषण, श्रद्धा के गहने,
उसकी बड़ी सी कुटिया में रहने,
कुटिल चेलों की कतार लगी थी,
भीड़ ये अपरम्पार लगी थी,
एक ढोंगी बाबा से मिलने को,
हुजूम में जय-जयकार लगी थी ।।

सब, भीड़ में अंधे खोये से,
श्रद्धा-भक्ति में रोये से,
जानते-बूझते हुए भी,
भेड़ की अंधी चाल चली थी,
वो बैठा लूट-खसोट रहा,
मुर्दों से मांस भी नोच रहा,
जैसे कोई लचर-व्यवस्था पर,
"सरकारी" सा कोई जोंक रहा,
पर, जाने क्यूँ उस ढोंगी पर,
श्रद्धा उमड़ी बार पड़ी थी,
लोगों की कतार लगी थी,
भीड़ ये अपरम्पार लगी थी,
एक ढोंगी बाबा से मिलने को,
हुजूम में जय-जयकार लगी थी ।।।