Monday, February 4, 2013

ज़िन्दगी बाकी नहीं...

बहुत बैचैनी से लिखे कुछ लफ्ज़, मिटो दीयो हाथों से,
राख़ से होते अंगारों को खुद में स्वाह कर लिया ।
सुलग रहे थे अरमां-इ-आरज़ू मुज्ज़मिल-इ-हालात बताने को,
और तमाशबीन बन खुद को स्वाह कर दिया ।

थक गया हूँ खुद से बातें करते-करते, अब सो जाना चाहता हूँ,
बहुत जी लिए तनहा, अब फ़ना हो जाना चाहता हूँ,
मेरी बातों का वजूद तो पहले भी न था, अब रो जाना चाहता हूँ,
थक गया खुद से बातें करते-करते, अब सो जाना चाहता हूँ ।

एक अजीब सी बैचैनी थी साँसों के दरमियान,
जिस्म ख़ाक हो कर भी मरा नहीं,
मैं जिंदा था कहीं खुद में दफ़न सा,
सांसें जुड़ी थी पर ज़िन्दगी बाकी नहीं ।

No comments:

Post a Comment