आज, लिखने की आरज़ू ले बैठे है हम, फिर लफ्ज़ क्यूँ मुझसे यूँ नाराज़ है,
सोचते कुछ और है हाल-इ-दिल हसरत बताने की, जुबान का कुछ और ही ख्याल है,
लफ्जों की हिमाकत यूँ होगी, मैंने सोचा न था,
ख्वाहिशों की चाहत यूँ होगी, मैंने सोचा न था,
न सोचा था, कि चाहतें यूँ मचलेंगी अंदर-अंदर,
न सोचा था, कि ख्वाहिशें क्यूँ पिघलेंगी अंदर-अंदर,
फिर आज क्यूँ लिखने की आरज़ू ले बैठे है हम और लफ्ज़ यूँ मुझसे नाराज़ है,
सोचते कुछ और है हाल-इ-दिल हसरत बताने की, जुबान का कुछ और ही ख्याल है...
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